वह मोमबत्ती की तरह
काम कर रहा था
वह सहसा कांप उठा और
बुझ गया
माना जाता है की जब
कोई व्यक्ति मौत के मुहँ की ओर बढ़ रहा होता है तो उसके मन की आँखों के के सामने
जीवन की तमाम घटनाएं एकबारगी कौंधती होंगी और यकीनन स्टेन के उस समय की सोंच मे हम
सब ने कुछ कीमती क्षण लिए होंगे। आज वो हमारे बीच होते तो नब्बे के होते, उनके गए
पाँच साल हो गए लेकिन प्रतीत होता है की उन्हे अभी रहना है, हमारे होने तक या फिर
हमारे न होने के बहुत बाद तक भी।
उनके बनाए-बसाए
“बगईचा” मे आज भी अक्सर जाना होता है जैसे उनके रहते भी होता था, मन को पता है की
वो नहीं हैं पर वहाँ का वातावरण उनकी मौजूदगी का एहसास करता है। बरसात की वजह से
कुछ कार्य बाधित होते हैं पर आग बुझाने के कार्य मे वो सहायक ही होते है, वैसे ही जैसे
उनके होने से आशा की बरसात का एहसास और उनके चले जाने के बाद के अवसाद और निराशा रूपी
कोहरे मे साहस की बरसात से आग को नियंत्रित रखने की उम्मीद उनके “बगईचा” से मिलती
है, कहने का अर्थ है जो मरते दम तक नहीं मरता वो अनंत तक जीता है,
जीतता है, और अगर उनके जाने का कोई शोक है तो वो सुकून और संतुष्टि का की हम अब भी
उसी मार्ग पर है जिसपर वो पाँच साल पहले साथ थे।
पिछले दो दशकों से
मैंने उन्हे पी यू सी एल मे साथ काम करते देखा और ये कह सकता हूँ की वो एक सच्चे
ईसाई थे पर राज्य के द्वारा किए जा रहे नागरिक अधिकारों के विरुद्ध लड़ते हुए आप
संत बने नहीं रह सकते और जब तक मैंने जाना–देखा
निजी या बाहरी तत्वों से प्रभावित हुए बिना वो शोषितों और वंचितों के अधिकारों को
ले कर लड़ते रहे पर मानसा वाचा कर्मणा वो संत बने रहे, सत्य सदाचार, सहयोग तथा
समन्वय से अपने “बगईचा” जो की एक अजीब सा स्वर्गिक स्थान है, का वैचारिक विस्तार
करते रहे।
चारों ओर पुराने वृक्षों से घिरे इस आश्रम मे लगता है है जैसे आप
कोई जन-उत्सव का आयोजन कर उसे चलाते रहें और सारी उम्र गुजर जाए, वहाँ जाना हो तो
अपना सारा समय समेट कर साथ ले जाएं ताकि पछतावा न हो की काश कुछ और समय होता और वो
यहीं बीतता। मुझे लगता है वह स्थान उनके लिए विचार करने, लिखने पढ़ने की थी जो की
बिना किसी संघर्ष या मुकाबले के बजाय अपनी बात लोगों तक पहुँचने का तरीका था। उनके
विचार जिस आस्था से प्रेरित थे उसका प्रभाव यह भी था की पढ़ने – लिखने, सोंचने और
विचार करने वालों की भी राय और आस्था को बदला जा सके। उनकी नियत पर किसी भी तरह का
शक करना या महज एक ईसाई पादरी समझ लेना वयर्थ का परिश्रम है। अपने धर्म पर टीके रह
कर भारत और उसके समाज ने बिना पराजित हुए बिना किसी को नकारे सभी धर्मों को सम्मान
से स्वीकार किया, और अगर कभी किसी के धारदार कोने चुभे तो वे भी इसके प्रवाह मे
घिस कर शालिग्राम बन गए। हम अपने अनुभव से जानते हैं की राजनीति की अपनी कोई
विचारधारा नहीं होती बल्कि अलग-अलग विचारधाराओं की राजनीति होती है इसलिए
विचारधारा के स्तर पर असहमति अगर है या हो सकती है तो होनी चाहिए और होती भी रहती
है यह कोई बड़ी बात नहीं और इसका समाधान तो यह है की आप उनसे बात कीजिए और कहिए की
आप गलत है।
विकास की स्थापित अवधारणा मे बुनीयदी रूप से कुछ
गड़बड़ तो नहीं होता है सिर्फ उनके क्रियान्वयन को ले कर दृष्टि मे भिन्नता हो सकती
है और वो भिन्नता महत्वपूर्ण होती होती है और स्टेन की इसी दृष्टि को हम अपनी
बहसों मे लाना चाहते है, और अगर हम बहस चाहते हैं तो सामने वाले की नियत और राय का
उसी तरह सम्मान करना चाहिए जैसा आप अपने लिए चाहते हैं और अगर यह सम्मान आपमे नहीं
हैं तो आप विचार, समझ और तर्क मे विश्वास नहीं करते हैं।
जहां तक मैं समझता
हूँ उनका मानना था की आजादी के बाद देश मे
एक उम्मीद बनी, लगा की तमाम कष्टों, कुरीतियों और समस्या का अब अंत हो जायगा और यह
जो हमने अपना राज्य जो हासिल किया है सबकुछ देखते देखते बदल देगा । आजादी से जुड़ी
इस उम्मीद ने जो की शायद एक खतरनाक उम्मीद प्रतीत हुई, ने राजनीतिज्ञों को यह अवसर
दे दिया की वो लोगों से कहें की आप हमे अपना मत दें और राज्य की शक्ति से हम सब
कुछ बेहतर कर देंगे, नतीजा यह हुआ की सिर्फ मत देना लोगों ने अपना कार्य समझ लिया
और अब इतने वर्षों बाद एहसास हो रहा है की राज्य न तो परिवर्तन का माध्यम हो सका
ना ही कल्याणकारी राज्य से सबका भला हो सका। एक राजनीतिक कहावत है की अगर दुनीया
मे मत की प्रक्रीया से अगर सच मे कभी कुछ परिवर्तित होता दिखा तो मत की प्रक्रीया
को ही परिवर्तित कर दिया जायगा ।
राष्ट्रीय अन्वेषण
अभिकरण ( एन आई ए ) के द्वारा उनकी गिरफ़्तारी के कुछ महीने पहले एक बार किसी
कार्यक्रम के अवसर पर निजी बातचीत में मैंने उनसे पूछा था की संविधान की एक प्रक्रिया
के तहत होने वाले विकास के बरक्स बिना किसी प्रक्रीया के सिर्फ परिणाम के आधार
होने वाले विकास पर आपकी क्या राय है तो उनका मानना था की सांविधानिक प्रक्रीया का
पालन तो होना ही चाहिए, ये अधिकारों को भी सुरक्षित रखता है जबकि दूसरा तरीका आवारा होता होता है। कृषि और उद्योग मे
जितनी भी प्रगति हुई है इसी अनुशासन से संभव हो पाई है पर संभवतः हमारी आर्थिक
नीतियों की वजहों से गरीबी अमीरी का अंतर भी बढ़ा है और बात सिर्फ गरीबी की ही नहीं
है, अधिकारों और संसाधनों की असमानता, अशिक्षा और जनसंख्या भी नियंत्रण से बाहर है
और इनके लक्ष्यों का हासिल होना अभी दूर लगता है। राजनीतिक व्ययस्था मे
राजनीतिज्ञों का निहित स्वार्थ, जात और धर्म पर मतों का बटवारा कर चुनाव जीतने पर
है और वे चाहते की सरकार पर उनकी निर्भरता बनी रहे। ऐसे मे उम्मीद मध्यम या निम्न वर्गों से है जो इस व्ययवस्था का सबसे
बड़ा शिकार है, आदिवासी जो जल, जंगल और जमीन को अपना आश्रय और पालक समझता है और
उसकी रक्षा करता है, वहाँ से उसे बिना बेहतर पुनर्वास के निजी उपक्रमों के द्वारा बेदखल
कर दिया जाना और सरकार का इन सब पर विकास के नाम पर कोई नियंत्रण करते हुए नहीं
दिखना आक्रोश ही पैदा करता है। ऐसे में उम्मीद उस समय और उस वर्ग के युवा से है
जिसे इस नए संघर्ष की व्ययवस्था मे लाने की दिशा मे प्रयास करना होगा।
दक्षिण भारत के लगभग अंतिम छोर से निकाल
कर आए इस व्यक्ति को यहाँ ऐसा क्या दिखा की उसने अपने प्रगीतिशील जीवन का स्थाई
आश्रम यहाँ बना लिया और अब कोई नहीं उन्हे यहाँ से जाने देना चाहेगा, इसी भावना के
फलस्वरूप “बगईचा” स्थित उनका कमरा जिससे उनका एक लंबा रिश्ता रहा, मे उनकी
स्मृतियों को सुरक्षित रखने का फैसला लिया गया। वास्तुकला के एक छात्र होने के
नाते मुझे इसकी जिम्मेदारी दी गई की कमरे की मौलिकता को बचाते हुए उनकी धरोहरों को
संरक्षित किया जा सके । इस क्रम मे कई बार उनके कमरे मे जाना हुआ जहां उनकी
अलमारी, आराम कुर्सी, लोहे का बिस्तर, पुस्तकें, फर्श पर पुरानी दरी, इत्यादि को
देखते हुए महसूस हुआ की अगर ये दीवारें बोल सकती तो हमे क्या बताती, यहाँ बैठा एक
इंसान क्या सोंचता विचारता रहा होगा जो उसे इतना विराट बनाता है। शायद उसकी यही
विशिष्टता सत्ता को अपने प्रतिकूल प्रतीत हुई और आगे अब सब इतिहास है। आने वाले
समय मे शायद मुश्किल से ही कोई भरोसा कर पाए की एक व्यक्ति जो अस्सी के पार का
रोगों से पीड़ित काँपते हाथों से एक ऐसी सत्ता को हिला गया जो दावा करती है की उसे
कोई पराजित नहीं सकता। इतिहास गवाह है की इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है की औपनिवेशिक शासन
की हुकूमत हो या
सामाजिक अनुबंध आधारित शासन, सत्ता
का चरित्र हर काल मे एक सा ही होता है। अंग्रेज़ों के
ख़िलाफ़ 1857 के विद्रोह में
षड्यंत्र के आरोप में दोषी ठहराए जाने के बाद अंग्रेज़ों ने आख़िरी मुग़ल सम्राट
बहादुर शाह ज़फ़र को भी निर्वासित कर म्यांमार (बर्मा ) भेज दिया था। रंगून में
आख़िरी सांस लेने वाले ज़फ़र की ख़्वाहिश थी कि वह हिंदुस्तान की मिट्टी में दफ़्न
हों पर अपनी इस आखिरी ख़्वाहिश को पूरा होता न देख खुद ज़फ़र जो की एक शायर भी थे,
कहा था
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
ये पंक्तियाँ स्टेन पर भी लागू होती है, जेल के एकांत मे निर्वासित
उन्होंने अपने कैद और जिस्म से आजाद होने के पहले उन्होंने कई बार अपने लोगों के
बीच भेज दिए जाने की इच्छा जताई थी पर सत्ता का अत्याचार कहें या मानवाधिकार का
उलँघन उनकी आवाज नहीं सुनी गई ।
पिछले दिनों पी
यू सी एल के एक बैठक के सिलसिले मे अरविन्द जी और सोलोमन जी के साथ बंबई जाना हुआ जहां की एक जेल मे उन्हे रखा गया
था। वहाँ के अंधेरी स्थित जिस स्थान मे हम रुके थे वहाँ के प्रांगण मे कई कब्र थी,
पूछा की स्टेन को क्या आखिरी बार जेल से यहीं लाया गया था तो पता चल वो जगह यहाँ
से काफी दूर है, इसको ले कर पूर्व मे योजना नहीं होने और समय अभाव के कारण वहाँ
जाना संभव नहीं हो पाया पर आशा है आश्रम के लोग उनकी समाधि को यहाँ स्थापित करने
की योजना पर कभी सोचें।
हमे हमेशा स्मरण
मे रखना होगा की इस दिधीची ने वयर्थ मे अपनी देह को नहीं त्यागा है जैसा की महाभारत के वनपर्व में वर्णित दैत्यों द्वारा
देवताओं पर आक्रमण के बाद देवराज इन्द्र ने ब्रम्हा की सलाह पर महर्षि दधीच से
उनकी हड्डियां मांग उनसे बने “वज्र” नामक शस्त्र से विजय पाई वैसे ही इस महर्षि के आश्रम द्वार पर प्रहरी की तरह खड़े
वृक्ष को इस आश्रम के सृजनकर्ता के हाथों से लगाए जाने का सौभाग्य प्राप्त है,
जिसने अपने सेनापति को राजनीतिक लाम पर जाते देखा था वो आज उनके लौटने के इंतज़ार
मे उसी मुद्रा मे खड़ा है जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के इंतज़ार मे रहता हो। आज तो वो इंतिज़ार मे हैं पर जहां तक मैं महसूस करता हूँ
समय के प्रवाह के साथ वृद्धि पाती हुई इस प्रहरी की बढ़ती हुई टहनियाँ इस प्रांगण
की गरिमा और महिमा बढ़ाती रहेंगी और कल आशीर्वाद मे फैली इसकी विशाल हो चुकी शाखाएं
अपने टूटने से पहले कई नए नन्हे पौधों का सृजन कर तैयार कर चुकी होंगी। काल के
थपेड़ों, और आंधी-तूफान से इसे स्वयं को बचाना होगा जैसा की आश्रम क्षेत्र के सदर प्रवेश
द्वार मार्ग पर दोनों ओर ऋषियों की तरह नीलगिरी (यूकेलिप्टस) के पतले लंबे
पर काफी मजबूत वृक्ष हैं और अपनी उपयोगिता के कारण ये दुनीया मे कहीं भी विकसित
होने की क्षमता रखते है, उन ऋषियों को इंतज़ार है अपने महर्षि की हड्डियों का की कब
उनकी अस्थियाँ वापस आयें और उनसे इस प्रांगण मे “वज्र” का निर्माण हो सके।
कामना है इस आश्रम की शुभासंशा फलीभूत
हो ।
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Shashi sagar verma